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क्रांति की कहानी बयाँ करते सिक्के
11 मई 200712:30 IST
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सिक्कों का संबंध हमेशा से हुकूमत से रहा है, इसलिए जब भारतीयों ने विदेशी सत्ता के विरुद्ध प्रथम स्वाधीनता संग्राम का एलान किया तो उसका एक प्रतीक सिक्के भी बने।वर्ष 1857 में विद्रोह की जो चिंगारी बैरकपुर से उठी उसकी जद में पूरा देश में आ गया। 11 मई को ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय सिपाही मेरठ से दिल्ली तक बढ़ गए और वहाँ अंग्रेज सेना को हराकर नगर पर अपना कब्जा कर लिया।कहते हैं कि 12 मई को बागियों ने जब बहादुर शाह जफर को बादशाह घोषित कर दिया, तो फौरन उन्होंने सोने का सिक्का जारी किया, जिस पर अंकित फारसी बैत यानी दोहे का अर्थ था, 'विजय के प्रतीक के रूप में सोने का सिक्का बनवाया, सिराजउद्दीन बहादुर शाह गाजी ने।'कहते हैं कि इसके साथ ही एक और फारसी बैत लिखी गई थी जिसका अर्थ था,' राजा बहादुर शाह हिंदुस्तान का राजा है और जो ईश्वर की कृपा से दुनिया का जेवर है।' जब अंग्रेजों ने विद्रोह का दमन कर दिया तो गालिब को भी गिरफ़्तार कर लिया गया। गालिब ने इस आरोप का खंडन किया कि उन्होंने ये बैत लिखी थीं।अपने एक मित्र मुहम्मद बाकिर को लिखे पत्र में गालिब ने दावा किया कि इसके रचयिता उनके प्रतिद्वंद्वी कवि मुहम्मद इब्राहीम जौक थे। वैसे आज तक सोने का ऐसा कोई सिक्का मिला नहीं जिस पर ये बैतें लिखी हों।वर्ष 1857 के एक प्रत्यक्षदर्शी अब्दुल लतीफ़ ने अपनी डायरी में लिखा है कि चांदनी चौक के क़रीब स्थित कटरा मशरू में एक टकसाल की स्थापना की गई थी और उसके संचालन का जम्मा मुंशी अयोध्या प्रसाद को सौंपा गया था।अंग्रेजों के जासूस की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि महल में उपलब्ध सोने-चाँदी की तमाम चीजों को टकसाल में सिक्के बनाने के लिए भी भेजा गया था। बहादुर शाह जफर के नाम पर जारी किया गया चाँदी का एक सिक्का जरूर मिला है जिस पर पहली बैत अंकित थी।आशा के विपरीत इस सिक्के पर दिल्ली, जिसे उस समय शाहजहांनबाद कहते थे, का नाम अंकित नहीं मिलता है। इस पर विद्रोह के एक अन्य महत्वपूर्ण केंद्र सूबा अवध (लखनऊ) का नाम मिलता है।बिर्जीस कद्र के सिक्के : लखनऊ अवध के नवाबों की राजधानी था। 1857 में बागियों ने वाजिद अली शाह के 13 वर्ष के बेटे बिर्जीस कद्र को अवध का शासक घोषित कर दिया और उनकी माँ बेगम हजरत महल को उनका संरक्षक बना दिया था।लखनऊ के बागी सरदारों का फ़ैसला था कि सिक्के बहादुर शाह जफर के नाम पर ही जारी किए जाएँ। उन्होंने प्रस्तावित सिक्के का एक नमूना अपने प्रतिनिधि अब्बास मिर्जा के हाथ मुगल बादशाह की मंजूरी के लिए भेजा था।हकीम अहसानउल्ला खान ने अपनी गवाही में बताया था कि इस सिक्के को बाद में पंजाब के कमिश्नर के पास जमा करवा दिया था। बाद में इस स्वर्ण मुहर का क्या हुआ कोई नहीं जानता।संडीला के राजा दुर्गा प्रसाद लिखित बोस्तान-ए-अवध में दर्ज है कि बहादुर शाह जफर के पास प्रतिनिधिमंडल जो सोने का सिक्का लेकर आया था उसे 22 अगस्त 1857 से अवध के नए सिक्के के रूप में जारी किया जाना था लेकिन इस बीच घटनाक्रम तेजी से बदला और दिल्ली और लखनऊ पर अंग्रेज़ों का फिर से कब्जा हो गया।लखनऊ में बिर्जीस कद्र के आदेश से एक टकसाल की स्थापना की गई। इसमें एक नए सिक्के का निर्माण हुआ जो आम चलन में भी आया। इन सिक्कों पर मछली का निशान अंकित था और लखनऊ के सर्राफों की भाषा में 'बिर्जीस कद्र के रुपए' कहा जाता था। चाँदी से बनाए गए सिक्के यानी रुपए और सोने से बने मुहर या अशरफी पर एक समान ही फारसी लेख मिलते हैं।इन सिक्कों का नूमना लखनऊ में पूर्व प्रचलित सिक्कों से लिया गया था जिन पर हिजरी की तिथि तो वास्तविक होती थी लेकिन राज्यारोहण की तिथि समान रूप से 26 ही होती थी।खान बहादुर खान के सिक्के : 31 मई 1857 को अंग्रेज़ों के भारतीय सैनिकों ने बरेली में भी विद्रोह कर दिया और फिर सर्वसम्मति से रोहिला सरदार खान बहादुर खान को अपना नेता चुना। उसी दिन खान बहादुर खान ने खुद को मुगल बादशाह के अधीन बरेली का विधिवत सूबेदार घोषित कर दिया।खान बहादुर खान की सरकार ने अपनी क्रांति का एक प्रतीक सिक्कों को भी बनाया और नए सिक्के अंकित कराने का फैसला भी किया। काफी विचार के बाद यह तय हुआ कि सिक्के पूर्व मुगल शासक शाह आलम द्वितीय के नाम पर जारी किए जाएं लेकिन तिथि बदल दी जाए।सिक्कों के लिए निश्चित शुद्धता वाली चाँदी और तय वज़न की टिकली बनाई गईं और इनपर ठप्पे अंकित कर इन्हें सिक्के का रूप दिया गया। खान बहादुर खान ने इन सिक्कों के प्रचलन के लिए जो आदेश जारी किए थे उसके मुताबिक एक रुपया ताँबे के 40-40 दो पैसे के बराबर होता था।इस बात के भी प्रमाण मिले हैं कि खान बहादुर खान ने पुराने रुपयों की अनुकृति कर अपने सिक्के जारी किए जिस पर टकसाल का नाम बरेली और तिथि 1274 हिजरी (सन् 1857) अंकित करवाई।6 मई 1858 को अंग्रेज सेना ने बरेली पर फिर से अधिकार कर लिया और खान बहादुर खान अपने कुछ सहयोगियों के साथ नेपाल भागने में सफल रहे। 9 दिसंबर, 1859 को नेपाल के राजा राणा जंग बहादुर ने खान बहादुर खान को बंदी बनाकर अंग्रेजों को सौंप दिया और 24 जनवरी 1860 को बरेली में उन्हें फाँसी दे दी गई।
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