Tuesday, May 15, 2007

BBCHindi.com: "'न किसी की आँख का नूर हूँ...'"

http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/05/070510_spl_1857_zafar.shtml
BBCHindi.com: "'न किसी की आँख का नूर हूँ...'"

बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी में बुद्धिजीवी होने का जो ग़म मिलता है वह 1857 के विद्रोह और उसके बाद उन्हें निर्वासित करके रंगून भेजने के बाद और भी स्पष्ट तौर पर उनकी शायरी में नज़र आता है.
मुग़ल सल्तनत के आख़िरी ताजदार बहादुर शाह ज़फ़र ने अपनी एक ग़ज़ल में कहा था:
या मुझे अफ़सरे-शाहाना बनाया होताया मेरा ताज गदायाना बनाया होताअपना दीवाना बनाया मुझे होता तूनेक्यों ख़िरदमंद बनाया न बनाया होता
यानी मुझे बहुत बड़ा हाकिम बनाया होता या फिर मुझे सूफ़ी बनाया होता, अपना दीवाना बनाया होता लेकिन बुद्धिजीवी न बनाया होता.
भारत के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के 150 साल पूरे होने पर जहाँ बग़ावत के नारे और शहीदों के लहू की बात होती है वहीं दिल्ली के उजड़ने और एक तहज़ीब के ख़त्म होने की आहट भी सुनाई देती है.
ऐसे में एक शायराना मिज़ाज रखने वाले शायर के दिल पर क्या गुज़री होगी जिस का सब कुछ ख़त्म हो गया हो. बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने मरने को जीते जी देखा और किसी ने उन्हीं की शैली में उनके लिए यह शेर लिखा:
न दबाया ज़ेरे-ज़मीं उन्हें, न दिया किसी ने कफ़न उन्हेंन हुआ नसीब वतन उन्हें, न कहीं निशाने-मज़ार है
अपनी बर्बादी के साथ-साथ बहादुर शाह ज़फ़र ने दिल्ली के उजड़ने को भी बयान किया है. पहले उनकी एक ग़ज़ल देखें जिसमें उन्होंने उर्दू शायरी के मिज़ाज में ढली हुई अपनी बर्बादी की दास्तान लिखी है:
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँजो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्ते ग़ुबार हूंमेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गयाजो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया, मैं उसी की फ़स्ले-बहार हूंपए फ़ातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्योंकोई आके शमा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूंमैं नहीं हूं नग़्म-ए-जांफ़ज़ा, मुझे सुन के कोई करेगा क्यामैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं,
बहादुर शाह ज़फ़र ने अपनी एक और ग़ज़ल में अपने हालात को इस तरह पेश किया है:
पसे-मरग मेरे मज़ार पर जो दिया किसी ने जला दियाउसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम ही से बुझा दियामुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ऐ परीवो जो तेरा आशिक़े-ज़ार था, तहे-ख़ाक उसके दबा दियादमे-ग़ुस्ल से मेरे पेशतर, उसे हमदमों ने ये सोच करकहीं जावे उसका न दिल दहल, मेरी लाश पर से हटा दियामैंने दिला दिया मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र कीकिसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों से उड़ा दिया
दिल्ली के हालात को दर्शाते हुए उनके कुछ शेर इस प्रकार हैं:
नहीं हाले-दिल्ली सुनाने के क़ाबिलये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिलउजाड़े लुटेरों ने वो क़स्र उसकेजो थे देखने और दिखाने के क़ाबिलन घर है न दर है, रहा इक ज़फ़र हैफ़क़त हाले-देहली सुनाने के क़ाबिल
एक और ग़ज़ल में लिखते हैं:
न था शहर देहली, ये था चमन, कहो किस तरह का था यां अमनजो ख़िताब था वो मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
एक और ग़ज़ल में लिखते हैं:
क्या ख़िज़ां आई चमन में हर शजर जाता रहाचैन और मेरे जिगर का भी सबर जाता रहाक्या खुशी हर इक को थी, कर रहे थे सब दुआजब घुसी फ़ौजे नसारा हर असर जाता रहाक्यों न तड़पे वो हुमा अब दाम में सय्याद केबैठना दो दो पहर अब तख़्त पर जाता रहारहते थे इस शहर में शम्सो-क़मर हूरो-परीलूट कर उनको कोई लेकर किधर जाता रहाआगूं था ये शहर दिल्ली अब हुआ उजड़ा दयारक्यों ज़फ़र ये क्या हुआ यौवन किधर जाता रहा
सुफ़ियाना और देसी रंग में डूबी हुई उनकी मनोस्थिति और हालात को दिखलाती हुई एक ग़ज़ल है:
कौन नगर में आए हम कौन नगर में बासे हैंजाएंगे अब कौन नगर को मन में अब हरासे हैंदेस नया है भेस नया है, रंग नया है ढ़ंग नया हैकौन आनंद करे है वां और रहते कौन उदासे हैंक्या क्या पहलू देखे हमने गुलशन की फुलवारी मेंअब जो फूले उसमें फूल, कुछ और ही उसमें बासे हैंदुनिया है ये रैन बिसारा, बहुत गई रह गई थोड़ी सीउनसे कह दो सो नहीं जावें नींद में जो नंदासे हैं
दिल्ली से अपने विदा होने को बहादुर शाह ज़फ़र ने इन शब्दों में बांधा है:
जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चलेबतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चलेन बाग़बां ने इजाज़त दी सैर करने कीखुशी से आए थे रोते हुए चमन से चले
निर्वासन के दौरान बहादुर शाह ज़फ़र के हालात को दर्शाती उनकी इस मशहूर ग़ज़ल के बिना कोई बात पूरी नहीं होगी:
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार मेंकिसकी बनी है आलमे-ना-पायदार मेंबुलबुल को बाग़बां से न सय्याद से गिलाक़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार मेंकहदो इन हसरतों से कहीं और जा बसेंइतनी जगह कहां है दिले दाग़दार मेंएक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमांकांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार मेंउम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिनदो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार मेंदिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गईफैला के पांव सोएंगे कुंजे मज़ार मेंकितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिएदो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कूए-यार में


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