Monday, April 23, 2007

वैदिक विचारधारा सुखप्रद है

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वैदिक विचारधारा सुखप्रद है
- आचार्य डॉ. संजय देव
आज मानव की सुख-सामग्री को प्राप्त करने की दौड़ ने उसके जीवन के महत्व को न्यूनता के स्तर पर पहुँचा दिया है। यह एक तथ्य है कि भौतिक साधनों से परिपुष्ट होने से यदि मानसिक शांति मिलती तो आज गगन को चूमने वाली अट्टालिकाओं में रहने वाले लोग अधिक सुखी होते। किंतु साधनभूत वस्तुओं को सिद्ध लक्ष्य मानना बहुत भारी भूल है। जीवन की परिधि में उपभोग की वस्तुओं को चारदीवारी में बंद करना जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। इस विचारधारा ने संसार को भोगवादी बना दिया है। वैदिक धर्म संसार के समक्ष सुखी रहने का एक उपाय रखता है - वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्, आदित्यवर्णं तमसः पुरस्तात्‌।तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।अर्थात् उस पूर्ण पुरुष परमात्मा को जाने बिना संसार का कल्याण नहीं हो सकता। एक कथा आती है कि एक राजा ने घोषणा करवा दी कि एक सुंदर एवं रमणीय दृश्यों से सुसज्जित उपवन में जो मुझ छिपे हुए को ढूँढ़कर प्राप्त कर लेगा, उसे राजा का आधा राज्य सौंप दिया जाएगा। अनेक लोग आए। कुछ तो झरते हुए झरने की चमचमाहट को देखकर वहीं खड़े मुग्ध हो गए, कुछ रंगमंच की साज-सज्जा में ही मगन हो गए। वे कठोपनिषद् के नचिकेता नहीं थे, जो यमाचार्य के आगे आत्म तत्व को जानने का आग्रह करते। आज भी ईश्वरीय तत्व की खोज करते-करते भटक कर मानव अनेक प्रकार के देवी-देवातओं की पूजा में लग जाता है। लोगों ने अपने-अपने मन के भगवान बना लिए हैं। उनका कल्याण कैसे हो? आखिर एक प्रभु भक्त साधु महात्मा को बाह्याडम्बर आकर्षित न कर सके। उसने भी सुगंधियुक्त फूलों को सूँघा, रमणीय प्रदर्शनी को निहारा, परंतु लक्ष्य को न भुलाया। इसी प्रकार जो मनुष्य ईश्वर की तलाश करते-करते इधर-उधर न भटकते हुए अपने लक्ष्य को सामने रखता है, वहीं जीवनानंद को प्राप्त करके सुखी होता है। सुख का एकमात्र उपाय वेद है। वेद की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि सृष्टि के आदि में थी। जो लोग भारत को अमेरिका, पेरिस एवं इंग्लैंड बनाना चाहते हैं, उन्हें भलीभाँति ज्ञात होना चाहिए कि इससे विश्व में भारत की आध्यात्मिक भावना की महत्ता ही समाप्त हो जाएगी।
(स्रोत - वेबदुनिया)
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