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नई दिल्ली। सचमुच हम रफी को आज तक नहीं भूला पाएं हैं, क्योंकि उनके द्वारा गाए हुए यह गीत आज भी लोगों के जुबां पर बरबस आ ही जाता है, तुम मुझे यूं भुला न पाओगे..। वह सन 1980 की 31 जुलाई का दिन था जब मोहम्मद रफी ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ फिल्म आस-पास के लिए एक गीत की रिकार्डिग की और उनसे जल्दी घर जाने की इजाजत मांगी। जाहिर है वहां मौजूद लोगों को इस बात से थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि रफी उन लोगों में से थे जो रिकार्डिग खत्म होने पर सबसे अंत में घर जाते थे, लेकिन रफी ने एक बार फिर कहा, 'मैं अब जाऊंगा'। रफी उस रात सचमुच चले गए एक लंबी अंतहीन यात्रा पर कभी वापस ना आने के लिए।
अमृतसर के निकट कोटला सुल्तानपुर कस्बे में 24 दिसंबर 1924 को हाजी अली मोहम्मद के घर छठे बेटे का जन्म हुआ। मां बाप ने प्यार से नाम रखा फीकू। वही फीकू जो आगे चलकर हिंदी सिनेमा जगत के देदीप्यमान नक्षत्र मोहम्मद रफी के रूप में उदित हुआ। रफी बचपन में ही अपने गांव के एक फकीर के सान्निध्य में आ गए, और वही उनके पहले गुरु बने। परिवार वालों ने रफी की संगीत के प्रति लगन को पहचाना और उन्हें उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद अब्दुल वहीद खान और पंडित जीवन लाल मट्टू जैसे शास्त्रीय संगीत के विशारदों से संगीत की शिक्षा दिलवाई।
उन्होंने रफी की प्रतिभा को पहली बार पहचाना संगीतकार श्यामसुंदर ने और सन 1942 में उन्हे पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' में जीनत बेगम के साथ युगल गीत गाने का अवसर दिया। गीत के बोल थे-'सोनिये नी, हीरिये नी'। सन 1944 में रफी मुंबई चले आए। रफी की दिली तमन्ना थी कि वे एक बार केएल सहगल के साथ गाते। मुंबई आने के बाद वे नौशाद साहब से मिले और उनकी बड़ी मिन्नतें कीं कि उन्हे फिल्म शाहजहां में सहगल के साथ गाने का मौका दिया जाए लेकिन अफसोस उस समय तक शाहजहां के सभी गीतों की रिकार्डिग पूरी हो चुकी थी। अंतत: नौशाद ने उन्हे फिल्म के एक कोरस 'रूही रूही रूही मेरे सपनों की रानी' गाने का मौका दिया। खुद नौशाद ने लिखा है कि उस कोरस में अपनी आवाज देने के बाद रफी ऐसे खुश हुए मानो उनकी बहुत बड़ी मुराद पूरी हो गई हो।
दरअसल हिंदी सिनेमा का यह वह दौर था जब कमोबेश सभी पाश्र्र्वगायक कहीं न कहीं सहगल के मैनेरिज्म से
प्रभावित थे, रफी भी इसके अपवाद न थे। एक बात जो उन्हे अपने समय के चुनिंदा गायकों से बिल्कुल अलग करती थी वह थी उनकी आवाज की विविधता और रेज। केएल सहगल, पंकज मलिक, केसी डे समेत जैसे गायकों के पास शास्त्रीय गायन की विरासत थी, संगीत की समझ थी लेकिन नहीं थी तो आवाज की वह विविधता जो एक पाश्र्र्वगायक को परिपूर्ण बनाती है। इस कमी को रफी ने पूरा किया।
उल्लेखनीय है कि सन 1952 में आई फिल्म 'बैजू बावरा' से उन्होंने अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित की। इस फिल्म के बाद रफी नौशाद के पसंदीदा गायक बन गए। उन्होंने नौशाद के लिए कुल 149 गीत गाए जिनमें से 81 एकल थे। इसके बाद रफी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और हिंदी फिल्म जगत के प्राय: सभी धुरंधर संगीतकारों ने उनकी जादुई आवाज को अपनी धुनों में ढाला। इनमें श्याम सुंदर, हुसनलाल भगतराम, फिरोज निजामी, रोशन लाल नागर, सी. रामचंद, रवि, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ओपी नैय्यर, शंकर जयकिशन, सचिन देव बर्मन, कल्याण जी आनंद जी आदि शामिल थे।
यूं तो रफी के गाए शानदार गीतों की लंबी फेहरिस्त है लेकिन यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है, इस दिल के टुकड़े हजार हुए, सुहानी रात ढल चुकी, ओ दुनिया के रखवाले, मन तड़पत हरि दरसन को आज, ये दुनिया अगर मिल भी जाए, बिछड़े सभी बारी बारी आदि उनके कुछ सार्वकालिक महान गीतों में शुमार किए जाते है।
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